हमेशा से ये कहा जाता रहा है कि तमिल साहित्य की दुनिया में मर्दों और औरतों के बीच समानता नहीं है. तमिल साहित्य में जो पद-सम्मान और प्रतिष्ठा पुरुष लेखकों को हासिल है या मिली है, महिला लेखकों को कभी भी नहीं मिली.
लेकिन ट्रांसवूमन और लेखक ए रेवती ने इस क्षेत्र में अपना अलग मुक़ाम बनाया है. उन्होंने वो प्रतिष्ठा हासिल की है जो इसके पहले तमिल साहित्य में किसी को प्राप्त नहीं हुई.
कोलंबिया यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी में उनका नाम माया एंगलो, टोनी मॉरिसन, मारमॉन सिल्को और शांजे जैसे मशहूर लेखकों के नाम के साथ लिखा गया है.
कोलंबिया की बटलर लाइब्रेरी के प्रवेश द्वार पर आठ पुरुष लेखकों के नाम जिसमें अरस्तू, प्लेटो, होमर, डेमोस्थेनेस और सिसेरो जैसे महान लेखक शामिल हैं, लिखा हुआ है. इस बात को लेकर काफी विरोध हुआ कि आख़िर इसमें महिला लेखकों के नाम क्यों नहीं शामिल हैं.
फिर साल 1989 में कुछ छात्रों ने ख़ुद ही महिला लेखकों के नाम लिख दिए और इतना ही नहीं इन महिला लेखकों के नाम पुरुष लेखकों के नाम के ऊपर थे. लेकिन इन नामों को कुछ ही दिनों में मिटा दिया गया.
अब लगभग पूरे 30 साल बाद, महिलाओं के विरोध को देखते हुए एक बैनर, जिस पर अंतरराष्ट्रीय ख़्याति प्राप्त महिला लेखकों के नाम लिखे हुए हैं उसे यहां प्रदर्शित किया गया है. और ख़ास बात यह है कि इन महिलाओ में ए रेवती का नाम भी शामिल है.
हमने इस संदर्भ में रेवती से मुलाक़ात की, पढ़िए उनके साथ हुई बातचीत के मुख्य अंश -
कौन हैं रेवती?
जिस तरह से आपने ये सवाल मुझसे पूछा ठीक उसी तरह एक वक़्त पर यही सवाल मैंने ख़ुद से भी पूछा था. लेकिन अपने भीतर की रेवती को खोजने और पाने के लिए मुझे एक लंबा संघर्ष करना पड़ा.
तमिलनाडु के नमक्कल ज़िले के दुरईसामी में जन्मी रेवती जब पांचवी कक्षा में थीं तब उन्हें ख़ुद में कुछ लैंगिक बदलाव महसूस हुए.
पांचवी में पढ़ने वाली रेवती को लोगों के ताने सुनने पड़े. क्या स्कूल क्या पड़ोस...हर जगह अपमान झेलना पड़ा. लेकिन यह सबकुछ सिर्फ़ यहीं तक सीमित नहीं था. माता-पिता और भाई की ओर से भी उन्हें काफी परेशानियां उठानी पड़ीं. एक वक़्त के बाद उन्होंने घर-परिवार छोड़ दिया और कभी दिल्ली तो कभी मुंबई रहीं.
हमारे समाज में एक ट्रांसजेंडर को जो कुछ परेशानी और तक़लीफ़ें उठानी पड़ती हैं रेवती ने भी उठाईं. रेवती भी हर उस तक़लीफ़ से गुज़रीं जिसका ज़िक्र हम आमतौर पर ट्रांसजेंडर लोगों के संदर्भ में सुनते हैं या पढ़ते हैं.
इसके बाद साल 1999 में वे बेंगलुरु में संगम ऑर्गेनाइज़ेशन से जुड़ गईं.
रेवती कहती हैं "जिस रेवती को आज आप देख रहे हैं उसे संगम लाइब्रेरी ने तराशा है. मैं साहित्यकार नहीं हूं. और सच कहूं तो मैंने बहुत ज़्यादा कुछ पढ़ा भी नहीं है. मुझे तो भाषा को लेकर डर भी था. एक समाज जो सबकुछ पवित्र-अपवित्र की नज़र से देखता है वहां भाषा भी पवित्रता से जुड़ी चीज़ है. मेरा डर इसी पवित्रता का सामना करने को लेकर था."